पावस कालीन गीत-विशेष को 'कजरी' नाम दे दिया गया : नथुनी पाण्डेय आजाद
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"रिमझिम बरसे बदरा---!"
झूम झूम सावन बरस रहा है
सखी-सहेली झूला झूले
पेंग लगाकर नभ को छूलें
परदेशी की आस लगाए,
बेकल जियरा तरस रहा है !
सावन के कारे-कजरारे बादलों को देखकर गाने की कल्पना
ही पावस कालीन गीत-विशेष को 'कजरी' नाम दे दिया गया। काजल शब्द 'कज्जल' का अपभ्रंश है,इसी से 'कज्जली' और बोलचाल की भाषा में 'कजरी' कहा जाता
है। स्पष्टत: मेघों का कजरापन ही कजरी-गीतों के नामकरण
का कारक बना।
'बरसे जोर-जोर से पानी
चुवे टूटही मोर पानी
पिया गइलें विदेशवा,लागत जहर कजरिया बा।'
महाकवि कालिदास ने 'मेघालय भवति सुखिनोऽप्यन्यथा वृत्तिचेत:' कहकर संकेत किया है की सावन में प्रकृति सर्वत्र हरी दिखाई पड़ती है तथा मेघों के आगमन के साथ ही प्रकृति में एक विचित्र प्रकार की मादकता संचारित होती है।प्रकृति की इसी पृष्ठभूमि में विशेष रूप से सावन महीने में कजरी गायी जाती है।
विरहिणी के आंसुओ से काजल धुलने की कल्पना भी कजरी गीत से रही होगी। कजरी के उद्भव का वास्तविक कारण चाहे जो कुछ रहा हो,किंतु इसके मूल में बादलों की श्याम छटा एक बड़ा कारण रही है।महाकवि सूरदास ने भी वर्णन किया है--
जहां देखो तहं स्याममयी है
स्यामकुंज वन यमुना स्यापा
स्याम स्याम घन छटा छई है !
सच कहा जाए तो कजरी गीतों में कोमल और श्रृंगार भाव भरे होते हैॅ।
भोजपुरी,बनारसी , पटनहिया और मिर्जापुरी कजरी शैली और स्थानीयता के आधार पर प्रमुख भेद हैं।वैसे तो मिर्जापुर को कजरी का मायका माना जाता है ,वही पलामूवासी भी डाल्टनगंज से सटे 'कजरी गांव ' भी कजरी का पीहर मानते हैं!!
डॉक्टर नथुनी पाण्डेय आजाद
साहित्यकार