:-हमारे द्वारा किए हुये कर्मों का फल सुख और दुख के रूप में प्राप्त होता है -जीयर स्वामी
श्री बंशीधर नगर-प्रखंड के पाल्हे जतपुरा ग्राम में चल रहे प्रवचन के क्रम में श्री श्री जीयर स्वामी जी महाराज ने कहा कि जिस प्रकार हमारे चाहने के बाद भी दुख हमारा पीछा नहीं छोड़ता है, ठीक उसी प्रकार से हम नहीं भी कामना करेंगे तो हमारा सुख और आनंद हमारे पास रहेगा. जैसे हम दुख के लिए प्रयास नहीं करते हैं, उसी प्रकार सुख के लिए भी हमें प्रयास नहीं करनी चाहिये. हमें कर्तव्य व कर्म अच्छा करना चाहिये.उन्होंने कहा कि लज्जा हमारी राष्ट्र की संस्कृति है.जहां लज्जा नहीं रहती है वहां सब कुछ रहने के बाद भी कुछ रहने का औचित्य ही नहीं बनता है.लज्जा मानव की गरिमा है.अगर इसे संस्कृति से हटा दिया जाये तो पशु और मनुष्य में कोई अंतर हीं नहीं रह रह जायेगा. उन्होंने कहा कि लोग विवाह से पहले ही पत्नी के साथ फोटो खिंचवा कर दूसरे को , मित्र को भेज देते हैं.मनुष्य को गरिमा और लज्जा ( शर्म ) का ख्याल रखना चाहिये.यहीं कारण है कि हम संस्कृति को भूल जाने के कारण सभी साधन रहने के बाद भी निराश हैं.भक्तिपूर्वक परमात्मा का ध्यान करना ही श्रेष्ठ प्रायश्चित है. मन द्वारा, वाणी द्वारा, शरीर द्वारा भक्तिपूर्वक परमात्मा का ध्यान करते हुए उनके नाम गुण, लीला, धाम इन चारों का जो उपासना करता है, यह श्रेष्ठ प्रायश्चित है.यह जितना श्रेष्ठ प्रायश्चित है उतना श्रेष्ठ प्रायश्चित यज्ञ, दान, तप भी नही है.यज्ञ, दान, तप करने वाले का हो सकता है ,उसके पापों का मार्जन न हो,लेकिन जो मन से वाणी से पवित्र होकर नाम गुण, लीला, धाम इन चारों का जो भावना करता है ,यहीं सबसे श्रेष्ठ प्रायश्चित है.श्रीमद्भागवत गीता में अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से पुछा है कि जो परमात्मा के अधिकारी हैं उनकी क्या भाषा है. उनकी क्या बोल चाल है, क्या लक्षण है,तो भगवान ने बताया कि जो भगवान में सोता है, जगता है, खाता है, उठता है, बैठता है, इतना ही नही जैसे कछुआ अपने शरीर को फैलाकर जल में तैरता है,उसी प्रकार से जो स्थितप्रज्ञ होते हैं, भगवान के भक्त होते हैं, वे दुनिया में अनेक प्रकार के लोगों को संदेश देने के लिए कहीं यज्ञ करते हैं तो कहीं मंदिर बनाते है .इसके द्वारा जब समाज को संदेश दे देते हैं तो फिर अपने में समेटने लगते हैं, यही निर्वाण पुरूष का लक्षण है. उन्होंने कहा कि गलत लोगों के संग में नही रहना चाहिये.इसलिये अपने आसनो को जीतना चाहिये.आप गलत लोगों के प्रभाव में नही आयें.गलत लोगों के प्रभाव में आकर आप कहीं गलत मार्ग पर न चलें, बल्कि आपके संग में रहकर गलत व्यक्ति सही मार्ग पर चलने लगे,यहीं जीतासन का मतलब है.
दुसरा जीत स्वासन है यदि आपको कोई अहित कर दे पर आप उसका अहित की भावना न किजिये.पापी लोगो का अन्न नही खाना चाहिये.पापी लोगों का न ही संग करना चाहिए तथा न ही अन्न खाना चाहिये. ऐसा करने से बुद्धि, मति, पापी के अनुसार हो जाता है. भीष्म पितामह ने दुर्योधन का संग किया था तथा उनका अन्न खाया था,इसलिए द्रोपदी को बचा नही पाये. देखते रहे. अनीति अन्याय को भी दुर्योधन के प्रति अपना अधिकार मान लिये थे.